Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


101. विदा : वैशाली की नगरवधू

सात दिन के अनवरत प्रयत्न से चित्र बनकर तैयार हो गया । इसके लिए अम्बपाली को प्रत्येक भाव -विभाव के लिए अनेक बार नृत्य करना पड़ा। जो चित्र सम्पूर्ण हुआ वह साधारण चित्र न था , वह मूर्तिमती कला थी । देवी अम्बपाली की अलौकिक शरीर - छटा और कला का विस्तार ही उस चित्र में न था , उसमें अम्बपाली की असाधारण संस्कृत आत्मा तक प्रतिबिम्बित थी । वह चित्र वास्तव में सम्पूर्ण रीति पर आंखों से नहीं देखा जा सकता था । उसे देखने के लिए दिव्य भावुकता की आवश्यकता थी । चित्र को देखकर अम्बपाली स्वयं भी चित्रवत् हो गईं ।

चित्र की समाप्ति पर सान्ध्य भोजन के उपरान्त जब युवक गुफा में शयन के लिए जाने लगा , तब उसने कहा

“ प्रियतमे , आज इस कुटी में तुम्हारी अन्तिम रात्रि है, कल भोर ही में हम नगर को चलेंगे। मैं अश्व लेता आऊंगा प्रिये ! तनिक जल्दी तैयार हो जाना । मैं सूर्योदय से प्रथम ही तुम्हें नगर - पौर पर छोड़कर लौट आना चाहता हूं । दिन के प्रकाश में मैं नगर में जाना नहीं चाहता । ”

कल उसे इस कुटिया से चला जाना होगा, यह सुनकर अम्बपाली का हृदय वेग से धड़क उठा; वह कहना चाहती थी - कल क्यों प्रिय , मुझे अभी और यहीं रहने दो , सदैव रहने दो , पर वह कह न सकीं । उनकी वाणी जड़ हो गई ।

युवक ने कहा - “ कुछ कहना है प्रिये ? ”

“ बहुत कुछ, परन्तु कहूं कैसे ? ”

“ कहो प्रिय , कहो ! ”

“ तुम छद्मवेशी गूढ पुरुष हो , मुझे अपने निकट ले आओ, प्रिय मुझे परिचय दो। ” युवक ने सूखी हंसी हंसकर कहा

“ इतना होने पर भी परिचय की आवश्यकता रह गई प्रिये ? मैं तुम्हारा हूं यह तो जान ही गईं; और जो ज्ञेय होगा, यथासमय जानोगी; उसके लिए व्याकुलता क्यों ? ”

कुछ देर चुप रहकर अम्बपाली ने कहा

“ तुमने कहां से यह अगाध ज्ञान - गरिमा प्राप्त की है भद्र, और यह सामर्थ्य ? ”

“ ओह, मैं तक्षशिला का स्नातक हूं प्रिये , तिस पर अंग -बंग , कलिंग, चम्पा , ताम्रपर्णी और सम्पूर्ण जम्बूद्वीपस्थ पूर्वीय उपद्वीपों में मैं भ्रमण कर चुका हूं और मेरा यह शरीर - सम्पत्ति पैतृक है । ”

क्षण - भर स्तब्ध खड़ी रहकर अम्बपाली युवक के चरणों में झुक गईं , उन्होंने कहा

“ भद्र , अम्बपाली तुम्हारी अनुगत शिष्या है। ”

“ और गुरु भी ! ”युवक ने अम्बपाली को हृदय से लगाकर कहा ।

“ गुरु कैसे ? ”

“ फिर जानोगी प्रिये, अभी विदा, सुप्रभात के लिए। ”

“ विदा प्रिय ! ”

“ युवक अन्धकार में खो गया और देवी अम्बपाली अपने - आप में ही खो गईं ।

वह रात- भर भूमि पर लेटी रहीं , युवक की पद- धूलि को हृदय से लगाए ।

एक दण्ड रात रहे, युवक ने कुटी - द्वार पर आघात किया ।

“ तैयार हो प्रिये ! ”

“ हां भद्र ! ”

युवक भीतर आ गया ।

“ क्या रात को सोईं नहीं प्रियतमे ? ”

“ सोना -जागना एक ही हुआ प्रिय ! ”

युवक कुछ देर चुप रहा । फिर एक गहरी सांस छोड़कर उसने कहा - “ अश्व बाहर है । क्या कुछ समय लगेगा ? ”

“ नहीं , चलो ! ”

युवक ने वह चित्र और वीणा उठा ली । उसने सिंह की खाल आगे रखकर कहा

“ यह उसी सिंह की खाल है । कहो तो इसे तुम्हारी स्मृति में रख लूं ? ”

“ वह तुम्हारी ही है प्रिय । इस अधम शरीर की खाल , हाड़ , मांस , आत्मा , भी । ” अम्बपाली की आंखों से मोती बिखरने लगे ।

दोनों धीरे -धीरे कुटी से बाहर हुए। अम्बपाली के जैसे प्राण निकलने लगे। नीचे आकर देखा - एक ही अश्व है ।

“ एक अश्व क्यों ? ”

“ तुम्हारे लिए। ”

“ और तुम ? ”

“ मैं तुम्हारा अनुचर पदातिक। ”

“ परन्तु पदातिक क्यों ? ”

“ तुम्हारे गुरुपद के कारण । ”

“ यह नहीं हो सकेगा, प्रिय ! ”

“ अच्छी तरह हो सकेगा, आओ, मैं आरोहण में सहायता करूं । ”

“ परन्तु तुम पदातिक क्यों भद्र ?

“ मुझे देवी अम्बपाली के साथ - साथ अश्व पर चलने की क्षमता नहीं है। प्रिये, देवी अम्बपाली लोकोत्तर सत्त्व हैं । ”

युवक का कण्ठ - स्वर कांपने लगा ।

अम्बपाली ने उत्तर नहीं दिया , वह चुपचाप अश्व पर चढ़ गईं। युवक पदातिक चलने लगा। दोनों धीरे- धीरे उपत्यका में उतरने लगे ।

उषा का प्रकाश प्राची दिशा को पीला रंग रहा था , वृक्ष और पर्वत अपनी ही परछाईं के अनुरूप अन्धकार की मूर्ति बने थे। उसी अन्धकार में से , वन के निविड़ भाग में होकर वह अश्वारोही और उसका संगी , दोनों धीरे - धीरे वैशाली के नगर - द्वार पर आ खड़े हुए ।

अभी द्वार बन्द थे। युवक ने आघात किया , प्रश्न हुआ

“ कौन है यह ? ”

“ चित्रभू, मित्र ! ”

“ ठीक है ठहरो , खोलता हूं। ”भारी सूचिका-यन्त्र के घूमने का शब्द हुआ और मन्द चीत्कार करके नगर - द्वार खुल गया ।

युवक ने अश्व के निकट जा अम्बपाली से मृदु कण्ठ से कहा -

“ विदा प्रिये! ”

“ विदा प्रियतम ! ”

दोनों ही के स्वर कम्पित थे, वीणा और चित्र देवी को देकर यवक तीव्र गति से लौटकर वन के अन्धकार में विलीन हो गया और अम्बपाली धीरे - धीरे अपने आवास की ओर चली ।

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